एक अलग सा राजस्थानी लोकगीत

यूरोप के रोमा (जिप्सी) बंजारों के बारे में बने एक वृत्तचित्र में राजस्थान के बंजारों का गाया हुआ यह लोकगीत दो रूपों में सुनने को मिला था. शब्द के बोल कुछ-कुछ समझ में आते हैं और ऐसा लगता है जैसे कि सात भाइयों की एक अकेली बहन की किसी लोककथा का ज़िक्र हो रहा है. जब पहली बार सुना तब से ही मुझे इस गीत का अर्थ जानने की उत्सुकता रही थी. आप भी सुनिए.  अर्थ समझ न भी आये तो भी शायद सुनना अच्छा लगे. यदि आप में से किसी को समझ आये तो कृपया टिप्पणी में या ईमेल द्वारा बताने की कृपा करें. धन्यवाद!

[अपडेट: किशोर चौधरी के सौजन्य से इस गीत के बोल मिल गये हैं। पढने के उत्सुक जन यहाँ क्लिक करें। धन्यवाद किशोर!]

सातों रे - खंड १


सातों रे - खंड २

3 comments:

  1. विष्णु बैरागी Says:

    दोनों गीतों के बोल ही समझ नहीं आए तो अर्थ समझना तो असम्‍भव ही रहा। किन्‍तु पहला गीत निश्‍चय ही भाई को सम्‍बोधित है और अनुभव होता है कि बहन अपने भाई को सम्‍बोधित करते हुए सन्‍देश दे रही है कि वह आए और उसे ससुराल से कुछ दिनों क लिए मायके ले जाए।

    भई को सम्‍बोधित ऐसे गीतों को मालवी में 'वीरा' कहा जाता है। मालवा में 'वीरा' गीतों की सम़ध्‍द परम्‍परा है। ये सारे गीत अत्‍यधिक कारुणिक होते हैं और गानेवाली महिलाओं और सुननेवाले स्‍त्री-पुरुषों की ऑंखें अनायास ही गीली हो जाती है, ऑंसू बहने लगते हैं।
    पहला गीत सुनते हुए मुझे रोना आ गया। उसके स्‍वर और बन्दिश ही इतनी कारुणिक है कि समझने के लिए मस्तिष्‍क की आवश्‍यकता ही नहीं हुई।

  2. योगेन्द्र मौदगिल Says:

    ...hmm..

  3. varsha Says:

    vaah... deve kyon ni gaadi ro bhado... bahut kashishbhari aawaz shayad kisi kishore ki...