तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू

आप सब ने मेरी पिछली पोस्ट में इब्न-इ-इंशा की कविता को पसंद किया इसके लिए आपका आभारी हूँ और उत्साहित होकर अपनी पसंद की एक और कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसको रचा है "राही मासूम रज़ा" ने। १९८९ में जलाल आगा द्वारा निर्मित फिल्म गूँज में इस रचना को अमर गायक मन्ना डे ने बिद्दू के निर्देशन में गाया था। यह अनूठा गीत आजकल आसानी से सुनने को नहीं मिलता है इसलिए एक ऑडियो फाइल भी अपलोड कर रहा हूँ। अगर भारत की एक पुरानी रिकार्ड कम्पनी का संवाद बोलूँ तो, "(audio) quality compromised for sake of nostalgia."

जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू

गले कट रहे हैं जुबां के लिए
लगी आग गिरते मकां के लिए
सवाल एक ही है जहाँ के लिए
ज़मीं क्यों लुटे आसमान के लिए

कहो कुछ जुबां पर अगर नाज़ है
कहो कुछ जुबां पर अगर नाज़ है

जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू

ये चुपचाप बर्दाश्त करना है जुर्म
खुद अपनी नज़र से उतरना है जुर्म
कहो ये कि दुश्मन से डरना है जुर्म
बिना कुछ कहे घुट के मरना है जुर्म
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है

जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू

जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू

कहो ये कि मंजिल से तुम दूर हो
खुदा की ज़मीं पर मजबूर हो
कहो ये कि ज़ख्मों से तुम चूर हो
खुद अपनी ही ख़बरों के मजदूर हो
तुम्हारी खामोशी का क्या राज़ है
तुम्हारी खामोशी का क्या राज़ है