तीन गीत...

... और बुखार की बडबडाहट

आज का दिन उन सब बिछड़ों के नाम जिनकी मंजिल अभी दूर है. ईश्वर उनके मार्ग को निष्कंटक करे।

.... बस स्टॉप पर अकेले इंतज़ार का गुस्सा। देर से आने या बिलकुल न आने वाले फोन के इंतज़ार का गुस्सा। व्यस्त जीवन और ढेरों जिम्मेदारियों का गुस्सा. थाली में सूखकर पापड बनी रोटी का क्या? किसी को तरह तरह के पक्वान्न बनाने की लगन और किसी के लिए भोजन बस जीवित रहने की एक तरकीब। उत्तर, दक्षिण, अंतर दो विपरीत ध्रुवों का। बात बनती तो बनती भी कैसे?

नतीज़ा: नारियल के खोल सा सख्त, रूक्ष और अन्धेरा जीवन। लेकिन जैसी कहावत है - सब्र का फल मीठा. एक परी का जादू, और डांट भी - ये आप क्या कर देते हो? बच्चा को अच्छा लगेगा? पिट्टी कर दूंगी! ओSSS आपको समझ नहीं आया था! देर से ही सही, बहुत चोटें लगने के बाद ही सही, वह सख्त, रूखा और अन्धेरा खोल टूटा और धवल मिठास ने अँधेरे को धो डाला। सारी कालिमा धवल हो गयी।

मगर सब दिन एक से कहाँ रहते हैं? साल का सबसे विशेष दिन, तुम्हारा अपना दिन - कब आकर निकल भी गया, पकड़ ही नहीं सका और आज का दिन भी भागा जा रहा है। जीवन है, उसका अहसास भी है। धूप भी है पर बिलकुल सर्द। और सूरज सिर्फ रोशन, ऊष्माहीन। दिखने में कितना पास, असलियत में कितना दूर। पास है तो बस दूरी की मजबूरी। बर्फ काफी है। गर्द से ढँकी, सलेटी, कीचड सी बर्फ। निष्ठुर हवा मानो मुंह नोच रही है। नाक सूखी, आंख नम। सरदर्द, ज़ुकाम, हरारत सभी है।

उम्मीद तो अफीम है मगर यादें तो ठोस हैं। एक हाथ थामा था कभी। आज, साथ नहीं है पर उस हाथ की गर्मी अभी भी है हाथ में। आँखें बंद करके महसूस करता हूँ। यादें भी हैं, उनकी खुशबू भी है। लकीरें ज़मीन पर खिंचती है दिमाग पर नहीं। देश बँट जाते हैं दिल नहीं। शुक्र है खुदा का, ग्रह तो हमारा एक ही है। रहते होंगे अलग घर में पर "गृह" तो एक ही है।

एक गीत तुम्हारी पसंद का:


और एक मेरी:


और उस परी के लिए एक गीत रखे बिना तो बात अधूरी ही रह जायेगी: