तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
Posted On मंगलवार, 4 अगस्त 2009 at by Smart Indian
आप सब ने मेरी पिछली पोस्ट में इब्न-इ-इंशा की कविता को पसंद किया इसके लिए आपका आभारी हूँ और उत्साहित होकर अपनी पसंद की एक और कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसको रचा है "राही मासूम रज़ा" ने। १९८९ में जलाल आगा द्वारा निर्मित फिल्म गूँज में इस रचना को अमर गायक मन्ना डे ने बिद्दू के निर्देशन में गाया था। यह अनूठा गीत आजकल आसानी से सुनने को नहीं मिलता है इसलिए एक ऑडियो फाइल भी अपलोड कर रहा हूँ। अगर भारत की एक पुरानी रिकार्ड कम्पनी का संवाद बोलूँ तो, "(audio) quality compromised for sake of nostalgia."
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
गले कट रहे हैं जुबां के लिए
लगी आग गिरते मकां के लिए
सवाल एक ही है जहाँ के लिए
ज़मीं क्यों लुटे आसमान के लिए
कहो कुछ जुबां पर अगर नाज़ है
कहो कुछ जुबां पर अगर नाज़ है
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
ये चुपचाप बर्दाश्त करना है जुर्म
खुद अपनी नज़र से उतरना है जुर्म
कहो ये कि दुश्मन से डरना है जुर्म
बिना कुछ कहे घुट के मरना है जुर्म
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
कहो ये कि मंजिल से तुम दूर हो
खुदा की ज़मीं पर मजबूर हो
कहो ये कि ज़ख्मों से तुम चूर हो
खुद अपनी ही ख़बरों के मजदूर हो
तुम्हारी खामोशी का क्या राज़ है
तुम्हारी खामोशी का क्या राज़ है
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
गले कट रहे हैं जुबां के लिए
लगी आग गिरते मकां के लिए
सवाल एक ही है जहाँ के लिए
ज़मीं क्यों लुटे आसमान के लिए
कहो कुछ जुबां पर अगर नाज़ है
कहो कुछ जुबां पर अगर नाज़ है
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
ये चुपचाप बर्दाश्त करना है जुर्म
खुद अपनी नज़र से उतरना है जुर्म
कहो ये कि दुश्मन से डरना है जुर्म
बिना कुछ कहे घुट के मरना है जुर्म
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
कहो ये कि मंजिल से तुम दूर हो
खुदा की ज़मीं पर मजबूर हो
कहो ये कि ज़ख्मों से तुम चूर हो
खुद अपनी ही ख़बरों के मजदूर हो
तुम्हारी खामोशी का क्या राज़ है
तुम्हारी खामोशी का क्या राज़ है
Anurag ji,
bahut hi khoobsurat kavita sunvaayi aaapne..
Manna De sahab ki awaaz bhi bahut madhur lagi..
aapka ek baar fir dhanyawaad aisi anmol kavita sunvaane aur padhwaane ke liye..
राही मासूम रज़ा मेरे पसंदीदा लेखक रहे हैं. नीम का पेड़ जी भर के पढ़ी.
आपका बहुत आभार इस रचना को पढ़वाने का.
अनुराग शर्मा जी!
"राही मासूम रज़ा" के इस गीत को
अमर गायक मन्ना डे ने बहुत डूब कर
गाया है।
जो गूंजे वही दिल की आवाज़ है
तो गूँज ऐ मेरे दिल की आवाज़ तू
को प्रस्तुत करने के लिए आभार!
इस खूबसूरत कविता के लिये आपका शुक्रिया. आगे भी ऐसे प्रयास की उम्मीद है.
रामराम.
आपको तो मालूम ही है, कि मैं मना दा का मुरीद हूं. रज़ा साहब का भी हो गया.
ये रचना कभी सुन नहीं पाया था, आपने लाईफ़ बना दी!!!
धन्यवाद.
ये चुपचाप बर्दाश्त करना है जुर्म
खुद अपनी नज़र से उतरना है जुर्म
कहो ये कि दुश्मन से डरना है जुर्म
बिना कुछ कहे घुट के मरना है जुर्म
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
कि मरना भी जीने का अंदाज़ है
बहुत सुन्दर गीत और मन्ना डे का तो कहना ही क्या। आभार इस गीत से परिचित कराने के लिए।
मुकेश ने राही मासूम रज़ा के इस गीत को अपनी सुरीली आवाज़ में और भी लाजवाब कर दिया है......बहुत डूब कर गाया है...
सच में ये जो लिख्खा है, वो हमारे दिल की आवाज है!
बहुत खूब अनुराग जी, एक अच्छी रचना से परिचय कराने के लिये.
आभार! इस सुंदर रचना से रूबरू करवाने के लिए।
बेहतरीन गीत। बेहतरीन प्रस्तुति।
बेहतरीन गीत। बेहतरीन प्रस्तुति।
नायाब. बहुत शुक्रिया अनुराग इस गीत के लिए.
Raza sahab ki rachnapadhwane ke liye aabhaar.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
अनुराग भाई आप भी तो कुछ लिखिए..... लोहे के पेड़ में हरीहरी लाइए महाराज ...ब्लोगियाइये..पढाइये...लिखाइये..ढिबरी बार के...पिट्सबर्ग में अन्हार तो नहीं है..बिजिलिया आती है कि नहीं..
सौरभ के.स्वतंत्र
एक यादगार गीत है यह् -
- पहले सुना भी नहीं था -
इसलिए , बहुत बहुत शुक्रिया आपका अनुराग भाई
और रक्षा बंधन के पावन पर्व की शुभ कामनाएं
स्नेह,
लावण्या
ये चुपचाप बर्दाश्त करना है जुर्म
खुद अपनी नज़र से उतरना है जुर्म
कहो ये कि दुश्मन से डरना है जुर्म
बिना कुछ कहे घुट के मरना है जुर्म
Amazing !!
अनुराग जी
बहुत धन्यवाद अति खूबसूरत लयबद्ध कविता के लिए ...
ati uttam ek se badhkar ek .
क्या कहूँ ...
Aapka kotishah aabhar....
सुन रही हूँ इस गीत को,कविता तो नही कहूँगी इसे.
जो कविता गे बन जाए वो गीत हो जाता है.
अद्भुत रचना है ये. और भी सुनायेंगे न ऐसी ही रचनाये? जानती हूँ सुनायेंगे क्योंकि जब कोई चीज हमे अच्छी लगती है तो हम उसे शेअर करते है क्योंकि तब वो हमारी हो जाती है एक आत्मीय लगाव सा....और हर कोई चाहता है कि जिसे वो पसंद कर रहा है लोग उसे पसंद करे. है ना?
राही मासून की रचनाओं मे गहरे एहसास होते हैं गीत सुना बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद इस शानदार प्रस्तुति के लिये।
अलविदा मन्ना डे!
"पद्मभूषण" प्रबोध चंद्र "मन्ना" डे
(1 मई 1919 - 24 अक्तूबर 2013)